हरियाणा को अक्सर औद्योगिक प्रगति, खेल प्रतिभा और कृषि समृद्धि के राज्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन इन चमकदार दावों के पीछे एक गहरा और खतरनाक बेरोजगारी और नशे का सामाजिक संकट पनप रहा है। यह संकट अब केवल व्यक्तिगत कमजोरी या पारिवारिक समस्या नहीं रहा, बल्कि एक संगठित सामाजिक चुनौती बन चुका है, जिसका सबसे बड़ा शिकार राज्य का युवा वर्ग हो रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस मुद्दे पर न तो पर्याप्त सार्वजनिक चर्चा होती है और न ही प्रशासनिक स्तर पर उस गंभीरता के साथ कार्रवाई दिखाई देती है, जिसकी यह समस्या मांग करती है। राज्य में पढ़े-लिखे युवाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन रोजगार के अवसर उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाए हैं। सरकारी भर्तियों में देरी, परीक्षाओं का बार-बार रद्द होना, चयन प्रक्रियाओं पर सवाल और निजी क्षेत्र में सीमित अवसर इन सबने युवाओं में गहरी निराशा पैदा की है। यह निराशा जब लंबे समय तक बनी रहती है, तो वह हताशा में बदल जाती है, और इसी खालीपन में नशे का रास्ता आसान दिखाई देने लगता है। बेरोजगारी और नशा इस तरह एक-दूसरे के पूरक बनते जा रहे हैं, जो युवाओं की ऊर्जा और भविष्य दोनों को धीरे-धीरे नष्ट कर रहे हैं। हरियाणा के कई जिलों, खासकर शहरी-ग्रामीण सीमावर्ती इलाकों और औद्योगिक क्षेत्रों में, नशे का संगठित नेटवर्क सक्रिय है। चिट्टा, स्मैक, सिंथेटिक ड्रग्स और नशीली गोलियां अब केवल सीमावर्ती राज्यों की समस्या नहीं रहीं, बल्कि गांवों और कस्बों तक गहरी पैठ बना चुकी हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि नशा अब चोरी-छिपे नहीं, बल्कि खुले राज की तरह फैल रहा है। युवाओं को सस्ते दामों पर नशा उपलब्ध हो रहा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इसके पीछे केवल छोटे अपराधी नहीं, बल्कि एक संगठित तंत्र काम कर रहा है। इस पूरे परिदृश्य में प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठना स्वाभाविक है। पुलिस और संबंधित एजेंसियां समय-समय पर बड़ी बरामदगी और गिरफ्तारी का दावा करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर हालात में कोई ठोस बदलाव नजर नहीं आता। नशा तस्करी के नेटवर्क को तोड़ने के बजाय अक्सर छोटे स्तर के उपभोक्ताओं को पकड़कर आंकड़ों की पूर्ति कर ली जाती है। इससे न तो नशे की सप्लाई रुकती है और न ही युवाओं को इस दलदल से बाहर निकालने का कोई रास्ता बनता है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि नशे की समस्या को अब भी नैतिक या आपराधिक चश्मे से देखा जाता है, जबकि यह एक गंभीर सामाजिक और स्वास्थ्य संकट है। नशे की गिरफ्त में आए युवा को अपराधी नहीं, बल्कि उपचार और पुनर्वास की जरूरत होती है। दुर्भाग्य से, राज्य में प्रभावी नशा मुक्ति और पुनर्वास केंद्रों की संख्या सीमित है, और जो हैं भी, उनकी गुणवत्ता और पहुंच दोनों पर सवाल उठते रहे हैं। परिवार अकेले इस लड़ाई को नहीं लड़ सकते, जब तक राज्य और समाज एकजुट होकर आगे न आएं। इस संकट से निपटने के लिए सरकार को केवल कानून-व्यवस्था तक सीमित नहीं रहना होगा। रोजगार सृजन, समयबद्ध और पारदर्शी भर्तियां, कौशल विकास और स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देना इस समस्या की जड़ पर प्रहार करेगा। साथ ही, स्कूल और कॉलेज स्तर पर नशा विरोधी जागरूकता, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन और मानसिक स्वास्थ्य पर खुली बातचीत आवश्यक है। प्रशासन को नशा नेटवर्क पर निर्णायक कार्रवाई के साथ-साथ युवाओं को सकारात्मक दिशा देने की ठोस रणनीति बनानी होगी। हरियाणा का युवा राज्य की सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन बेरोजगारी और नशे का यह दोहरा संकट उसे सबसे कमजोर बना रहा है। यदि अब भी इसे अनदेखा किया गया, तो आने वाले वर्षों में इसकी सामाजिक और आर्थिक कीमत कहीं अधिक चुकानी पड़ेगी। यह समय चेतने का है सिर्फ नारों से काम बनने वाला नहीं।


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