ज के भारत की सच्चाई किसी कल्पना या अतिशयोक्ति का परिणाम नहीं है, बल्कि वह दृश्य है जो हर कोई अपनी स्क्रीन पर देख सकता है। यदि देश की असली हालत जाननी हो तो किसी भाषण, रिपोर्ट या विज्ञापन पर भरोसा करने की जरूरत नहीं। बस एक बार ऑनलाइन मौसम और वायु गुणवत्ता का नक्शा खोलिए। कुछ ही क्षणों में आंखें चौड़ी हो जाना तय है। पूरा भारत खतरनाक और बेहद खतरनाक प्रदूषण के रंगों में डूबा नजर आता है। यह नक्शा केवल आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि एक सामूहिक चेतावनी है कि देश की हवा अब जीवनदायिनी नहीं रही, बल्कि धीरे-धीरे जानलेवा बन चुकी है।  

वायु प्रदूषण अब किसी एक शहर, एक राज्य या एक मौसम तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में फैल चुका एक स्थायी संकट है, जो हर सांस के साथ शरीर के भीतर उतर रहा है। मौजूदा हालात में बीमार पड़ना कोई अपवाद नहीं रह गया है। स्वस्थ दिखने वाला व्यक्ति भी भीतर से कमजोर होता जा रहा है। बच्चों में सांस और एलर्जी की समस्याएं कम उम्र में सामने आ रही हैं, युवाओं में लगातार थकान और सिरदर्द आम बात हो गई है, और बुजुर्गों के लिए यह हवा हृदय रोग और समय से पहले मृत्यु का खतरा बढ़ा रही है। इसके बावजूद यह संकट न तो राजनीतिक एजेंडे के केंद्र में है और न ही सामाजिक बहस का मुख्य विषय बन पाया है।

सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि देश का सबसे गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट होते हुए भी इस पर वैसी गंभीरता नहीं दिखाई देती, जैसी अपेक्षित है। नीतियां बनती हैं, बैठकें होती हैं और रिपोर्टें जारी की जाती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत हर साल और अधिक जहरीली होती जा रही है। ऐसा लगता है मानो प्रदूषण को हमने अपनी नियति मान लिया हो,एक ऐसी मजबूरी, जिसके साथ जीना ही एकमात्र विकल्प बचा हो। यह चुप्पी और उदासीनता ही इस संकट को और खतरनाक बना रही है।

विडंबना यह है कि आज साफ हवा भी सामाजिक हैसियत से जुड़ गई है। देश का संपन्न वर्ग इस जहरीली हवा से खुद को काफी हद तक अलग करने में सफल रहा है। उनके घरों के हर कमरे में एयर प्यूरीफायर चलते हैं, गाड़ियों में अत्याधुनिक फिल्टर लगे हैं और दफ्तरों में नियंत्रित वातावरण उपलब्ध है। उनके बच्चों के लिए साफ हवा एक स्विच दबाने भर की दूरी पर है। इसके विपरीत आम आदमी जो सड़कों पर काम करता है, निर्माण स्थलों पर मजदूरी करता है, खेतों में पसीना बहाता है या घनी बस्तियों में रहता है, जिसके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, उसके लिए साफ हवा कोई विकल्प नहीं, बल्कि एक सपना बन चुकी है। वह उसी हवा में सांस लेने को मजबूर है, जो धीरे-धीरे उसकी सेहत और उम्र दोनों को कम कर रही है।

यह स्थिति केवल स्वास्थ्य असमानता का प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक अन्याय का भी गंभीर उदाहरण है। साफ हवा, जो कभी सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध थी, अब खरीदी जाने वाली सुविधा बनती जा रही है। जो खरीद सकता है, वह खुद को बचा लेता है, और जो नहीं खरीद सकता, वह हर दिन प्रदूषण का बोझ अपने फेफड़ों पर ढोता है। इसी असमानता से वह तीखा और व्यंग्यात्मक स्वर निकलता है कि राशन नहीं, इस महीने तो एक एयर प्यूरीफायर ही दे दीजिए। यह वाक्य मजाक नहीं, बल्कि उस आम नागरिक की हताशा की अभिव्यक्ति है, जिसे समझ में आ गया है कि उसके हिस्से में योजनाओं से ज्यादा जहरीली हवा आई है।

अगर आज किसी से कहा जाए कि साफ हवा चाहिए तो देश से बाहर जाना होगा, तो यह बात सुनने में अटपटी जरूर लगती है, लेकिन सच्चाई के करीब है। कहा जाता है कि तिब्बत के ऊंचे और कम आबादी वाले क्षेत्रों में, वह भी चीन के स्वायत्त क्षेत्र में, अब भी ऐसी हवा मिलती है जो शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाती। यह तुलना अपने आप में एक कटु सवाल खड़ा करती है कि क्या हम सचमुच उस दौर में पहुंच गए हैं, जहां अपने ही देश में सांस लेने के लिए विकल्प नहीं बचे हैं?

इस संकट की जड़ें वर्षों पुरानी हैं। अनियंत्रित शहरीकरण, लगातार बढ़ती वाहनों की संख्या, उद्योगों पर कमजोर निगरानी, निर्माण गतिविधियों से उड़ती धूल और प्रदूषणकारी ऊर्जा स्रोत इन सबने मिलकर हवा को धीरे-धीरे जहर में बदल दिया है। हर साल कुछ महीनों के लिए यह मुद्दा चर्चा में आता है, फिर किसी बहाने से पीछे छूट जाता है। अस्थायी उपाय किए जाते हैं, लेकिन स्थायी समाधान की ओर ठोस कदम उठाने से हम अब भी कतराते नजर आते हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब भोजन, पानी और आवास को बुनियादी जरूरत माना जाता है, तो साफ हवा को उसी श्रेणी में क्यों नहीं रखा जाता। गरीब के लिए राशन योजना बनाई जाती है, लेकिन यह नहीं सोचा जाता कि यदि वही गरीब व्यक्ति प्रदूषण के कारण बीमार होकर काम करने लायक नहीं रहेगा, तो वह राशन कितने दिन उसका सहारा बनेगा। इसी सोच की कमी ने हवा को अधिकार नहीं, बल्कि सुविधा बना दिया है।

वायु प्रदूषण का प्रभाव केवल अस्पतालों तक पहुँच रहे मरीजों तक सीमित नहीं है। यह देश की अर्थव्यवस्था को भी भीतर से खोखला कर रहा है। बीमार कार्यबल, बढ़ता स्वास्थ्य खर्च और घटती उत्पादकता ये सब मिलकर विकास के दावों पर सवाल खड़े करते हैं। हम स्मार्ट शहरों की बात करते हैं, लेकिन उन शहरों में रहने वाले लोगों की सांस कितनी सुरक्षित है, इस पर कम ही चर्चा होती है।

समाधान असंभव नहीं हैं, लेकिन वे आधे-अधूरे प्रयासों से नहीं आएंगे। सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना, स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा को प्राथमिकता देना, उद्योगों और निर्माण गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण, शहरी हरियाली का विस्तार और सबसे महत्वपूर्ण साफ हवा को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करना, ये कदम अनिवार्य हैं। जब तक यह सोच विकसित नहीं होगी, तब तक एयर प्यूरीफायर कुछ घरों की दीवारों के भीतर चलते रहेंगे और बाकी देश खुले आसमान के नीचे जहर पीता रहेगा।

अंततः यह संकट हम सबके सामने एक सीधा सवाल रखता है। क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं, जहां ऑनलाइन नक्शा खोलते ही पूरा देश प्रदूषण के खतरनाक रंगों में डूबा दिखे, या ऐसा भारत, जहां बच्चों को सांस लेने के लिए मशीनों पर निर्भर न होना पड़े। यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि हमारी संवेदनाओं, प्राथमिकताओं और जिम्मेदारियों की परीक्षा है। अगर आज हमने इस पर गंभीरता से कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियां हमें उस लापरवाही के लिए याद रखेंगी, जिसकी कीमत उन्होंने अपनी सांसों से चुकाई। 

"राम गोपाल"