भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है एक साफ, पारदर्शी और प्रमाणित मतदाता सूची। यदि मतदाता सूची ही संदिग्ध हो जाए, तो पूरी चुनावी प्रक्रिया की नींव डगमगा सकती है। इसी पृष्ठभूमि में चुनाव आयोग ने विशेष गहन पुनरीक्षण, जिसे साधारणत: एसआईआर कहा जा रहा है, आरंभ किया है। इसका उद्देश्य बहुत स्पष्ट है मतदाता सूची से उन नामों को हटाना जो अब पात्र नहीं हैं, जिनकी मृत्यु हो चुकी है, जो स्थानांतरित हो चुके हैं या जिन्होंने गलत दस्तावेज़ों के आधार पर मतदान अधिकार प्राप्त कर लिया है। यह प्रक्रिया हर लोकतांत्रिक देश में होती है, और एक स्वस्थ चुनाव प्रणाली की बुनियादी आवश्यकता है।

लेकिन आश्चर्य की बात है कि देश के कुछ राजनीतिक दल जैसे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बंगाल की टीएमसी इस प्रक्रिया का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। सवाल यह है कि एक ऐसी प्रक्रिया, जिसका उद्देश्य मतदाता सूची को शुद्ध और विश्वसनीय बनाना है, उससे आखिर किसे डर हो सकता है? कौन सा राजनीतिक वर्ग उन तत्वों की पहचान से परेशान है जो अवैध रूप से मतदाता सूची में शामिल हो गए हैं?

बंगाल-बांग्लादेश सीमा से हाल के दिनों में आई खबरें इस प्रश्न को और गंभीर बना देती हैं। अनेक भारतीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सीमावर्ती इलाकों में हजारों अवैध बांग्लादेशी लाइन लगाए खड़े दिखे, जहाँ से वे वापिस बांग्लादेश जाना चाहते थे। एसआईआर लागू होने के बाद उनके नाम हटने की संभावना के डर से नहीं बल्कि उनकी पोल खुलने के बाद गिरफ्तारी से वापिस जाना चाहते है। ये वही लोग हैं जो वर्षों पहले अवैध घुसपैठ करके भारत में आए, जिन्होंने यहाँ पहचान पत्र बनवाए, और वर्षों से वोट डालते रहे। वे किसे वोट दे रहे थे ? यह एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसका उत्तर हर कोई समझ सकता है।

यह भी अत्यंत चिंताजनक तथ्य है कि कई सीमावर्ती जिलों में पिछले 20-30 वर्षों में जनसंख्या संरचना नाटकीय रूप से बदली है। जिन क्षेत्रों में पहले स्थानीय समुदाय बहुसंख्यक थे, वहाँ अब हालात उलट चुके हैं। एक ही वर्ग की जनसंख्या का अचानक इतना अधिक बढ़ जाना सामान्य सामाजिक विकास का परिणाम नहीं हो सकता। यह संकेत देता है कि अवैध प्रवेश, नकली दस्तावेज़ और राजनीतिक संरक्षण के माध्यम से एक सुनियोजित जनसांख्यिकीय परिवर्तन किया गया है। ऐसे में एसआईआर जैसी प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए अनिवार्य हो जाती है।

लेकिन विपक्षी दल इसे साजिश, भेदभाव और डर का माहौल बताकर विरोध क्यों कर रहे हैं?

इसका साफ उत्तर है वोट बैंक की राजनीति। जिन राजनीतिक दलों ने वर्षों तक सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध प्रवासियों को सुरक्षा, पहचान पत्र, राशन कार्ड, आवास और यहां तक कि मतदान अधिकार दिलाने में परोक्ष रूप से भूमिका निभाई, जाहिर है कि उन्हें अब डर है कि एसआईआर उनकी इस राजनीतिक पूंजी को समाप्त कर देगा। इसलिए वे इसे गलत तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि उनके समर्थक वर्ग में भ्रम और भय पैदा हो सके।

परंतु यहाँ एक बड़ा नैतिक प्रश्न उठता है क्या भारतीय लोकतंत्र अवैध प्रवासियों के हितों पर चलेगा या भारत के वास्तविक नागरिकों के अधिकारों पर? विपक्षी दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि यदि उन्हें सचमुच भारतीय नागरिकों के अधिकारों की चिंता है, तो वे अदालत का दरवाजा क्यों नहीं खटखटाते? यदि उन्हें लगता है कि एसआईआर असंवैधानिक है या राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है, तो वे न्यायपालिका में इसे चुनौती दे सकते हैं। लेकिन विरोध करना, रैलियां निकालना, डर फैलाना यह सब बताता है कि समस्या एसआईआर में नहीं, बल्कि उनके खोते हुए राजनीतिक आधार में है।

एसआईआर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं है। यह केवल यह जांच करता है कि मतदाता सूची में दर्ज व्यक्ति वहाँ रह रहा है या नहीं, उसके दस्तावेज़ प्रमाणित हैं या नहीं, और वह वास्तविक नागरिक है या नहीं। यह प्रक्रिया हर राज्य में समान रूप से लागू होती है, और इसमें किसी के धर्म, जाति या राजनीतिक झुकाव को कहीं कोई भूमिका नहीं दी जाती। बल्कि इसका उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि भारत की चुनाव प्रणाली विश्वसनीय बनी रहे।

वास्तविक चिंता उन लाखों भारतीय नागरिकों की होनी चाहिए जिनकी वोट की कीमत अवैध प्रवासियों के नकली वोट से कम हो जाती है। ऐसे लोग जिन्होंने भारत में जन्म लिया, जो टैक्स देते हैं, जो इस देश की सुरक्षा और व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, उनके मत का महत्व तब कमजोर हो जाता है जब अवैध घुसपैठियों को समान राजनीतिक अधिकार दे दिए जाएँ। यह न केवल लोकतंत्र के साथ अन्याय है, बल्कि देश की आंतरिक सुरक्षा, संसाधनों के वितरण और सामाजिक सामंजस्य के लिए खतरा भी है।

विपक्षी दलों की चिंता यदि वास्तविक और संवैधानिक होती, तो वे एसआईआर पर तथ्यों के आधार पर चर्चा करते। वे यह बताते कि कहाँ ग़लत हो रहा है, किसे परेशानी हो सकती है, और क्या सुधार किए जा सकते हैं। परंतु ऐसा करने के बजाय वे इसे सांप्रदायिक और पक्षपाती बताकर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं। यह व्यवहार न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अनादर का प्रतीक भी है।

बांग्लादेश से लगी सीमा पर जिस तरह अवैध प्रवासियों में बेचैनी दिखाई दे रही है, वह इस बात का सीधा प्रमाण है कि वर्षों से मतदाता सूची का दुरुपयोग होता रहा है। जब यह प्रक्रिया शुरू हुई, तो सबसे अधिक घबराहट उन्हीं में देखी गई जिनके पास वास्तविक दस्तावेज़ नहीं हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि एसआईआर अपनी भूमिका सही दिशा में निभा रहा है।

भारतीय नागरिकों को यह समझना चाहिए कि एसआईआर का उद्देश्य सिर्फ मतदाता सूची को सुधारना नहीं है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा, सरकारी संसाधनों के संरक्षण, और लोकतंत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ है। जब असली नागरिकों का वोट अवैध व्यक्तियों के वोट के बराबर बैठ जाए, तो लोकतंत्र का मूल्य स्वयं कम हो जाता है।

एसआईआर पर विरोध करने वाले दलों को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। यदि वे वास्तव में भारतीय नागरिकों के हित में खड़े हैं, तो वे प्रमाण दें, अदालत जाएँ, या समाधान पेश करें। लेकिन यदि वे केवल अपने राजनीतिक हित बचाने के लिए इस प्रक्रिया को बाधित करना चाहते हैं, तो जनता यह समझ लेगी कि उनके विरोध का वास्तविक कारण क्या है।

भारत को साफ, प्रमाणिक और सुरक्षित मतदाता सूची की जरूरत है और एसआईआर इसी दिशा में एक मजबूत कदम है। विपक्ष को भी इसे लोकतांत्रिक दृष्टि से समझना चाहिए, न कि अवैध घुसपैठियों के संभावित वोट बैंक की दृष्टि से।