गांधी ने 1905 में जो कहा था उसके ठीक विपरीत 16 वर्षों बाद नवंबर 1921 को उनके असहयोग आंदोलन में उन्होंने मुंबई में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
आगे की पढ़ाई के लिए सावरकर लन्दन गए,जिसमें छात्रवृत्ति के साथ उनके ससुर ने भी उनकी आर्थिक सहायता की। 1906 को सावरकर मुंबई बंदरगाह से परसिया नामक जहाज से लंदन के लिए रवाना हो गए। तिलक समय उन को विदाई देने के लिए मुंबई बंदरगाह पर स्वंय पधारे। लंदन में पहुंचने के कुछ ही समय बाद उन्होंने वहां फ्री इंडिया सोसायटी के गठन किया। यह उनकी पुणे की अभिनव भारत संस्था के ही अनुरूप थी। फ्री इंडिया सोसायटी की कुछ ही समय में लंदन में धूम मच गई और सावरकर की ख्याति फैलने लगी।
लंदन में कृष्णजी श्याम वर्मा जब लंदन छोड़कर पेरिस जाने लगे तो उन्होंने अपनी इंडिया होम रूल सोसाइटी को सावरकर के संस्था से संबंध करते हुए, इंडिया हाउस का भी सारा काम सावरकर को ही सौंप दिया। इंडिया हाउस में रहते हुए सावरकर का अनेक देशभक्तों से परिचय हुआ, जिनमें भाई परमानंद, लाला हरदयाल, सेनापति बापट, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, जे.सी मुखर्जी, ज्ञान चंद वर्मा, सरदार सिंह राणा, मादाम कामा इत्यादि थे। भाई परमानंद वही व्यक्ति थे जो दक्षिण अफ्रीका के डरबन में गांधी से मिलने के उपरांत लंदन आए थे, लेकिन लंदन आकर सावरकर से मिलने के बाद वह गांधी को भूल गए और सावरकर के प्रशंसक बन गए। लंदन में उन्होंने भारतीय इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन किया और लगभग डेढ़ वर्ष के निरंतर अध्ययन के बाद उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि के लिए भारत में ब्रिटिश समाज का उत्थान पर अपना शोध प्रबंध लिखा। उनके गाइड ने इस शोध प्रबंध की प्रशंसा की थी किंतु दो एंग्लो इंडियन प्राध्यापकों ने उसे अस्वीकार कर दिया। तब लाला हरदयाल से मिलने के लिए अमेरिका चले गए और वहां से सान फ्रांसिस्को विश्वविद्यालय से भी उपाधि प्राप्त करके 1913 में भारत लौट आए।
अमेरिका में लाला हरदयाल जब सावरकर के संपर्क में आए तो भारत मुक्ति आंदोलन के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।
सावरकर के प्रभाव में सेनापति बापट जिन का पूरा नाम पांडुरंग महादेव बापट था, जो मुंबई में छात्रवृत्ति लेकर इंजीनियरिंग के लिए एडिनबरा गए थे, सावरकर के संपर्क में आते ही उन्होंने लंदन में ओजस्वी भाषण दे डाला और प्रकाशित भी करवा डाला। उन्होंने बाद में लिखा भी कि मेरे मन परिवर्तन का प्रमुख कारण वह छाप थी जो सावरकर के ओजस्वी लेखों एवं भाषणों ने मुझ पर डाली, इस जन्मजात क्रांतिकारी लेखक और वक्ता के आगे भला मेरी क्या बिसात थी। परंतु बाद में यही बापट कट्टर गांधीवादी हो गए।
ज्ञानचंद वर्मा लंदन में कानून की पढ़ाई करते थे और फ्री इंडिया सोसायटी के सचिव भी थे। सावरकर के संपर्क में आने पर वह भी उनके रंग में रंग गए। सावरकर के विषय में उन्होंने कहा था, यदि इस व्यक्ति ने किसी काम का बीड़ा उठा लिया तो समझ लो वह काम संपन्न हो गया। फिर उसे संसार की कोई शक्ति नहीं रोक सकती।
सरदार सिंह राणा सौराष्ट्र के रियासत के राजकुमार थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख समर्थक थे। सावरकर की संस्था अभिनव भारत के कोषाध्यक्ष भी थे। सावरकर द्वारा लिखित भारतीय स्वतंत्रता समर का इतिहास पुस्तक के फ्रांसीसी संस्करण के प्रकाशन के लिए भी उन्होंने ही पैसा दिया था। इससे क्रुद्ध होकर अंग्रेज सरकार ने सरदार सिंह राणा की संबंध संपत्ति को अपने अधिकार में कर लिया।
इसी प्रकार मादाम भीकाजी रुस्तम जी कामा जब स्वास्थ्य लाभ के लिए लंदन आई तो सावरकर के सानिध्य में लंदन में ही आजादी की ज्वालामुखी में कूद पड़ी। पेरिस जाकर उन्होंने वंदे मातरम पत्र निकाला। मई 1908 में भारतीय स्वतंत्रता समर की स्वर्ण जयंती पर जो झंडा उन्होंने लहराया था, लगभग उसी प्रकार का झंडा आज भारतीय तिरंगा है।
लंदन में कृष्णजी श्याम वर्मा जब लंदन छोड़कर पेरिस जाने लगे तो उन्होंने अपनी इंडिया होम रूल सोसाइटी को सावरकर के संस्था से संबंध करते हुए, इंडिया हाउस का भी सारा काम सावरकर को ही सौंप दिया। इंडिया हाउस में रहते हुए सावरकर का अनेक देशभक्तों से परिचय हुआ, जिनमें भाई परमानंद, लाला हरदयाल, सेनापति बापट, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, जे.सी मुखर्जी, ज्ञान चंद वर्मा, सरदार सिंह राणा, मादाम कामा इत्यादि थे। भाई परमानंद वही व्यक्ति थे जो दक्षिण अफ्रीका के डरबन में गांधी से मिलने के उपरांत लंदन आए थे, लेकिन लंदन आकर सावरकर से मिलने के बाद वह गांधी को भूल गए और सावरकर के प्रशंसक बन गए। लंदन में उन्होंने भारतीय इतिहास का निष्पक्ष अध्ययन किया और लगभग डेढ़ वर्ष के निरंतर अध्ययन के बाद उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि के लिए भारत में ब्रिटिश समाज का उत्थान पर अपना शोध प्रबंध लिखा। उनके गाइड ने इस शोध प्रबंध की प्रशंसा की थी किंतु दो एंग्लो इंडियन प्राध्यापकों ने उसे अस्वीकार कर दिया। तब लाला हरदयाल से मिलने के लिए अमेरिका चले गए और वहां से सान फ्रांसिस्को विश्वविद्यालय से भी उपाधि प्राप्त करके 1913 में भारत लौट आए।
अमेरिका में लाला हरदयाल जब सावरकर के संपर्क में आए तो भारत मुक्ति आंदोलन के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।
सावरकर के प्रभाव में सेनापति बापट जिन का पूरा नाम पांडुरंग महादेव बापट था, जो मुंबई में छात्रवृत्ति लेकर इंजीनियरिंग के लिए एडिनबरा गए थे, सावरकर के संपर्क में आते ही उन्होंने लंदन में ओजस्वी भाषण दे डाला और प्रकाशित भी करवा डाला। उन्होंने बाद में लिखा भी कि मेरे मन परिवर्तन का प्रमुख कारण वह छाप थी जो सावरकर के ओजस्वी लेखों एवं भाषणों ने मुझ पर डाली, इस जन्मजात क्रांतिकारी लेखक और वक्ता के आगे भला मेरी क्या बिसात थी। परंतु बाद में यही बापट कट्टर गांधीवादी हो गए।
ज्ञानचंद वर्मा लंदन में कानून की पढ़ाई करते थे और फ्री इंडिया सोसायटी के सचिव भी थे। सावरकर के संपर्क में आने पर वह भी उनके रंग में रंग गए। सावरकर के विषय में उन्होंने कहा था, यदि इस व्यक्ति ने किसी काम का बीड़ा उठा लिया तो समझ लो वह काम संपन्न हो गया। फिर उसे संसार की कोई शक्ति नहीं रोक सकती।
सरदार सिंह राणा सौराष्ट्र के रियासत के राजकुमार थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख समर्थक थे। सावरकर की संस्था अभिनव भारत के कोषाध्यक्ष भी थे। सावरकर द्वारा लिखित भारतीय स्वतंत्रता समर का इतिहास पुस्तक के फ्रांसीसी संस्करण के प्रकाशन के लिए भी उन्होंने ही पैसा दिया था। इससे क्रुद्ध होकर अंग्रेज सरकार ने सरदार सिंह राणा की संबंध संपत्ति को अपने अधिकार में कर लिया।
इसी प्रकार मादाम भीकाजी रुस्तम जी कामा जब स्वास्थ्य लाभ के लिए लंदन आई तो सावरकर के सानिध्य में लंदन में ही आजादी की ज्वालामुखी में कूद पड़ी। पेरिस जाकर उन्होंने वंदे मातरम पत्र निकाला। मई 1908 में भारतीय स्वतंत्रता समर की स्वर्ण जयंती पर जो झंडा उन्होंने लहराया था, लगभग उसी प्रकार का झंडा आज भारतीय तिरंगा है।
गांधी 1906 में पहली बार लंदन मैं सावरकर से मिले और दो दिन इंडिया हाउस में ही रहे और अचानक बिना बताए लंदन के आलीशान पांच सितारा होटल सेसिल में रहने चले गए। श्री धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक महात्मा गांधी पॉलिटिकल सेंट एंड अनार्म्ड प्रोफेट के पेज संख्या 102 पर लिखा है, इतना ही नहीं इस पंचतारा होटल में 5 सप्ताह रहकर, जिसके खर्चे के विषय में सोचकर ही सिहरन होती है, गांधी ने कई बार केश सज्जा भी कराई। सैलून वाले के सुझाव पर कि इस सज्जा में विशेष प्रकार के महंगे शैंपू से बाल सवारने पड़ेंगे, गांधी ने तुरंत दो पोंड देकर शैंपू भी मंगा डाला। बचे हुए शैंपू की बोतल उन्होंने अपनी अफ्रीका की साथी श्रीमती पोलक को दे दी। पांच सितारा सेसिल होटल में ठहरने के बाद भी गांधी श्याम जी वर्मा तथा सावरकर से मिलने के लिए इंडिया हाउस आते रहे और श्याम जी को सावरकर से दूर करने का प्रयास करते रहे। किंतु उनके सभी प्रयास असफल गए। गांधी-सावरकर से कई बार मिले, लेकिन उन दोनों में मतभेद बने रहे।
लंदन में फ्री इंडिया सोसाइटी की साप्ताहिक बैठके हुआ करती थी। फ्री इंडिया सोसाइटी भारत के महापुरुषों की जयंती मनाने के साथ-साथ पर्व - त्योहार समारोह का आयोजन किया करती थी। जिसमें बड़ी संख्या में ब्रिटेन में पढ़ने वाले छात्र भाग लेते थे। उस समय जवाहरलाल नेहरू लंदन में ही रहकर पढ़ाई कर रहे थे। लेकिन उन्होंने कभी भी फ्री इंडिया सोसाइटी के समारोह में भाग नहीं लिया।
लंदन में फ्री इंडिया सोसाइटी की साप्ताहिक बैठके हुआ करती थी। फ्री इंडिया सोसाइटी भारत के महापुरुषों की जयंती मनाने के साथ-साथ पर्व - त्योहार समारोह का आयोजन किया करती थी। जिसमें बड़ी संख्या में ब्रिटेन में पढ़ने वाले छात्र भाग लेते थे। उस समय जवाहरलाल नेहरू लंदन में ही रहकर पढ़ाई कर रहे थे। लेकिन उन्होंने कभी भी फ्री इंडिया सोसाइटी के समारोह में भाग नहीं लिया।
सावरकर ने सिखों का इतिहास नामक पुस्तक लिखी। यह उन्होंने पेरिस में पूर्ण की, जिसे पूरा करने में 4 वर्ष लगे। सिखों का इतिहास पुस्तक लिखने से पहले उन्होंने गुरमुखी का अध्ययन किया, उसे सीखा, गुरुमुखी में लिखित ग्रंथों का अध्ययन किया और फिर इस पुस्तक को लिखा।
1857 में भारत में जो सैनिक विद्रोह हुआ था, उसको ब्रिटिश सरकार ने गदर का नाम दिया था, किंतु सावरकर ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा । अंग्रेजों को उत्तर देने के लिए सावरकर ने 1857 के स्वतंत्रता समर की स्वर्ण जयंती मनाने का निश्चय किया। मई 1906 को भारतीयों ने इंग्लैंड में सभाएं की, व्रत किए, प्रतिज्ञाएं की और 1857 के शहीदों की जय के बैज लगाए। इंडिया हाउस में इस अवसर पर विशेष आयोजन किया गया। मंच पर क्रांति के योद्धाओं और महान आत्माओं के आदम कद चित्र रखे गए। यूरोप के कोने कोने से लगभग 200 विद्यार्थी इस में सम्मिलित हुए। समारोह का शुरुआत राष्ट्रीय गान से हुआ, उच्च स्वर से वंदे मातरम का घोष किया गया। उस समारोह के अध्यक्ष राणा साहब थे। मादाम कामा उपस्थित नहीं हो सकी, राणा साहब ने उनका संदेश पढ़कर सुनाया। इस अवसर पर सावरकर ने 1857 के संग्राम को भारत का प्रथम स्वतंत्रता समर परिभाषित किया। भारत के क्रांतिकारियों को सभी लोगों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
सभी विद्यार्थी उन बैज़ों को लगाकर अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटी गए। बैज लगाए विद्यार्थी जब बाजारों में निकले तो अंग्रेजों से उनकी कहासुनी हुई। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के अध्यापकों ने विद्यार्थियों को अपशब्द कहे। जिसके विरोध स्वरूप कक्षाओं का बहिष्कार हुआ। इस प्रकार एक आंदोलन ने अपना रूप ग्रहण किया। वास्तव में सावरकर देशवासियों को प्रथम स्वतंत्रता समर की कथा सुना कर, उनमें क्रांति की भावना जागृत कर, स्वतंत्रता के लिए इच्छा जागृत करना चाहते थे।
सावरकर का मानना था कि अधिकांश भारतीय इतिहास या तो विदेशियों द्वारा लिखा गया है, या फिर उन्होंने अपने भाड़े के टट्टुओं को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन्होंने जो इतिहास लिखा है, उसमें ब्रिटिश सरकार के गुणगान से भारत के इतिहास को काला किया गया है। सावरकर के अनुसार भारतीय इतिहास को राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखने की आवश्यकता थी। सावरकर अपनी बातों में 1857 की क्रांति का उदाहरण दिया करते थे, जिसे अंग्रेज और उनके पिट्ठू इतिहासकारों ने केवल मुट्ठी भर सैनिकों का विद्रोह या गदर कहकर भारतीय इतिहास की खिल्ली उड़ाई थी। कांग्रेस के नेता गोपाल कृष्ण गोखले भी उस समय लंदन में ही थे, लेकिन उनको बिल्कुल नहीं भाया की इस प्रकार सावरकर अंग्रेजों की आलोचना करें। बाद में यही गोखले गांधी के राजनीतिक गुरु कहलाए।
सभी विद्यार्थी उन बैज़ों को लगाकर अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटी गए। बैज लगाए विद्यार्थी जब बाजारों में निकले तो अंग्रेजों से उनकी कहासुनी हुई। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के अध्यापकों ने विद्यार्थियों को अपशब्द कहे। जिसके विरोध स्वरूप कक्षाओं का बहिष्कार हुआ। इस प्रकार एक आंदोलन ने अपना रूप ग्रहण किया। वास्तव में सावरकर देशवासियों को प्रथम स्वतंत्रता समर की कथा सुना कर, उनमें क्रांति की भावना जागृत कर, स्वतंत्रता के लिए इच्छा जागृत करना चाहते थे।
सावरकर का मानना था कि अधिकांश भारतीय इतिहास या तो विदेशियों द्वारा लिखा गया है, या फिर उन्होंने अपने भाड़े के टट्टुओं को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन्होंने जो इतिहास लिखा है, उसमें ब्रिटिश सरकार के गुणगान से भारत के इतिहास को काला किया गया है। सावरकर के अनुसार भारतीय इतिहास को राष्ट्रीय दृष्टिकोण से लिखने की आवश्यकता थी। सावरकर अपनी बातों में 1857 की क्रांति का उदाहरण दिया करते थे, जिसे अंग्रेज और उनके पिट्ठू इतिहासकारों ने केवल मुट्ठी भर सैनिकों का विद्रोह या गदर कहकर भारतीय इतिहास की खिल्ली उड़ाई थी। कांग्रेस के नेता गोपाल कृष्ण गोखले भी उस समय लंदन में ही थे, लेकिन उनको बिल्कुल नहीं भाया की इस प्रकार सावरकर अंग्रेजों की आलोचना करें। बाद में यही गोखले गांधी के राजनीतिक गुरु कहलाए।